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प्रधानमंत्री का मौनव्रत भंग

निहितार्थ
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प्रधानमंत्री का मौनव्रत भंग

लगता है अनशन, व्रत करने और तोड़ने का मौसम आया हुआ है. अन्ना हजारे और बाबा रामदेव द्वारा अनशन तोड़ने के बाद व्रतभंग की शृंखला में प्रधानमंत्री का शामिल होना अति उत्साहवर्धक समाचार है. मौन ( मोहन सिंह ) व्रतधारी प्रधानमंत्री नें अनेक चिरौरी मिन्नतों के बाद आखिर अपना मौनव्रत तोड़ने का फैसला कर ही लिया वह भी अपनी विशिष्ट शैली में. अपनी बात कहने के लिए उन्होंने प्रवक्ता के रूप में समाचार पत्र संपादकों को चुना है. संपादकों की सम्प्रेषण क्षमता ( communication skill ) निश्चय ही बेहतर होता है. संपादकों का इस्तेमाल इस उद्देश्य के लिए करना उचित ही कहा जाएगा. वैसे भी सरकारी भोंपू बनने के लिए बिकाऊ पत्रकारों के मुंह से लार टपकती रहती है. इसके अपने अनेक फायदे हैं जैसे विदेश यात्राएं, पद्मश्री जैसे सम्मान इत्यादि इत्यादि. कुछ पत्रकारों को इन सम्मानों से नवाजा गया है. बहुत से पत्रकार जो कुछ वर्षों पूर्व तक दिल्ली में डी टी सी की बसों में चढ़ने के लिए लाइन में खड़े होते थे आज मर्सिडीज़ और बी एम् डब्लू कारों में घूमते हैं. बंद कमरे में प्रधानमंत्री और संपादकों के बीच क्या हुआ क्या नहीं, इसका अंदाज़ लगाना मुश्किल है. सम्पादक प्रवक्ताओं नें अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन अपनी क्षमता और अपेक्षा के अनुरूप अत्यंत कुशलता से ही किया. इसी में उनकी उपयोगिता थी. फिर भी जन लोकपाल बिल, भ्रष्टाचार, 4 जून को रामलीला मैदान में खेली गई रावणलीला और मंहगाई पर न कोई असुविधाजनक प्रश्न पूछे जाने थे और न पूछे गए. उत्तर भी न मिलने वाले थे और न मिले. फिर भी सम्पादक लोग बाग़ बाग़ हुए जा रहे हैं. इसे अत्यंत ही महत्वपूर्ण एक क्रांतिकारी कदम बताया जा रहा है. प्रधानमंत्री नें अब अपना मौन तोड़ ही दिया है तो उन्हें चाहिए कि वे शर्मिंदगी त्याग कर इस प्रकार के संवाद बंद कमरे में न करके खुले में करें इस बात पर ध्यान देना होगा कि सम्पादक सरकारी प्रवक्ता बन कर न रह जांय. संपादकों की विश्वसनीयता और निष्पक्षता संदेह के घेरे में न आने पाए. वैसे तो बहुत से बिकाऊ पत्रकार एवं सम्पादक तो सरकार के भोंपू के रूप में कार्य करने को लालायित रहते ही हैं.

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