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एक बीमार लोकतंत्र

निहितार्थ
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एक बीमार लोकतंत्र

अब्राहम लिंकन नें कहा था लोकतंत्र एक ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें ‘ जनता का शासन, जनता के लिए और स्वयं जनता द्बारा’ संचालित होता है.
चूंकि जनता स्वयं अपना शासन चुनती है, इस कारण
अपेक्षा की जाती है कि लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था जनता के हित के लिए कार्य करेगी. मेरे विचार से लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था सबसे उत्तम है. सामंतवादी, अधिनायकवादी व्यवस्थाएं जनता के हित के विरुद्ध और अपने स्वयं के हित के लिए कार्य करती हैं. यहाँ प्रश्न खडा होता है कि लोकतंत्र अगर इतना ही अच्छा है तो, हमारे यहाँ बेइन्तेहा गरीबी, भुखमरी, बेईमानी, भ्रष्टाचार, कानून व्यवस्था की दयनीय हालत इत्यादि क्यों है. 60 वर्ष के लोकतांत्रिक पद्धति से कार्य करने के बावजूद हम अपनी समस्यावों को क्यों नहीं सुलझा पाए हैं. हालात बद से बदतर हुए हैं. गरीबी इतनी ज्यादा है कि छोटे छोटे बच्चों को कूडेदान में से दाना बीन कर खाते हुए देखा जा सकता है. हमारे देशवासी एक ऐसा नारकीय जीवन जी रहे हैं जिसमे इंसान और जानवर के बीच का अंतर समाप्त हो गया है. हमारे देश में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली सन 1952 से लेकर लगभग 56-57 साल से चल रही है. हमारे यहाँ ग़रीबी, दारिद्र्य,बीमारी, भुखमरी, अशिक्षा, असमानता, पिछड़ापन, उर्जा और पेय जल का अभाव, खेती और किसान की दुर्गति, भयानक भ्रष्टाचार, क़ानून व्यवस्था की दयनीय स्थिति, न्यायपालिका में लोगों की घटती हुई आस्था, जैसी समस्याओं से हम उबर नहीं पा रहे हैं. क्या यह सब हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली की वजह से है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोगों का विश्वास डगमगाने लगा है. चूंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनती है, शासन व्यवस्था में जनता की सहभागिता होती है, इस कारण अच्छे- बुरे की ज़िम्मेदारी भी जनता की ही बनती है. ग्रीक दार्शनिक प्लेटो नें सच ही कहा है ‘ In democracy, you get a Govt you deserve ‘. इस प्रकार जनता के कंधों पर यह ज़िम्मेदारी आती है कि वह सही प्रतिनिधियों का चुनाव करे. हमारे लोकतंत्र में बाहर से देखने पर तो सब कुछ ठीक ठाक नज़र आता है. लेकिन गहराई में जाकर ध्यान से देखने पर बहुत सी विसंगतियाँ, विकृतियाँ नज़र आती हैं. हमारे लोकतंत्र का स्वरुप इतना विद्रूप हो चुका है कि वह पहचान में ही नहीं आता है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हमारे यहाँ लोकतंत्र भ्रष्टतंत्र और भीड़तंत्र बन गया है. इसमें बाहुबल, धनबल, जातिवाद, अपराध, भ्रष्टाचार , धर्म की भूमिका प्रमुख हो गयी है. राजनीति का उद्देश्य जनता की सेवा करना न होकर सत्ता पर कब्ज़ा करना हो गया है. एकबार सत्ता पर कब्ज़ा होने पर अपनी सल्तनत कायम करना, भ्रष्ट तरीकों से बेतहाशा धन अर्जित करना, मुख्य उद्देश्य हो जाते है. अगर लोकतंत्र असफल होता है, तो इसके बड़े ही भयानक परिणाम हो सकते हैं. विकल्प है अराजकता, सामंतवादी, फासिस्ट या एक गुट की तानाशाही या फिर सैनिक शासन. किसी प्रकार की भी तानाशाही कभी अच्छी नहीं हो सकती. तानाशाही में कुछ थोड़े से लोग या फिर शासन करने वाली जमात जनता के भाग्य का फ़ैसला करती है. इनके फ़ैसले जनता के हित में न होकर अपने हित मे होते हैं. सच पूछिए तो मेरे विचार में लोकतंत्र का कोई विकल्प है ही नहीं. क्या तानाशाही व्यवस्था अपनाने से हमारे सभी समस्याओं का समाधान निकल आएगा. मेरे विचार से तो नहीं. शायद हालात और भी बद से बदतर हो जाएँगे. हमें अभिव्यक्ति की जो स्वतंत्रता मिली हुई है वह तो हम खो ही देंगे साथ ही साथ अपनी मर्ज़ी की सरकार बनाने का जो अधिकार हमारे पास है, उसे भी हम गवाँ बैठेंगे. अपने यहाँ लोकतंत्र को सफल बनाना अति आवश्यक है. हमें इन सब बातों पर गहन विचार करना होगा. हमारे लोकतंत्र में बहुत सारी विसंगतियां, विकृतियाँ प्रवेश कर गई हैं. हमें अपने लोकतंत्र की कमियों को समझना होगा तभी हम इसका फ़ायदा ले पाएँगे. मैं इन विकृतियों को चिन्हित करने का प्रयास कर रहा हूँ. आदर्श स्थिति तो यह होगी की जनता के हित के सारे फ़ैसले सर्व सहमति से किए जायं. चूँकि ऐसा संभव नहीं है, इसलिए सभी फ़ैसले बहुमत से किए जाते हैं. बहुमत का मतलब है 100 में से 51 लोग जिस बात का समर्थन करें वह बात मान ली जाएगी. लेकिन चुनाव व्यवस्था कुछ ऐसी है कि 20 – 30 प्रतिशत के करीब मत प्राप्त करने वाला दल भी विपक्ष के विभाजित होने के कारण 50 प्रतिशत से ज्यादा सीटें लेकर विधान सभा या लोक सभा में बहुमत प्राप्त कर लेता है और मनमाने तरीके से शासन प्रणाली चलाता है. जनमत के समर्थन और विधानसभाओं और लोकसभा में सीटें मिलने में कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है. इसका मतलब यह हुआ क़ी 20 से 30 प्रतिशत जनसमर्थन पाने वाला दल 70 से 80 प्रतिशत लोगों के भविष्य का निर्णय करेगा. इससे जनता के बहुमत का सही प्रतिनिधियत्व नहीं हो पाता है न ही उसकी राय व्यक्त हो पाती है. यह हमारे लोकतंत्र क़ी बहुत ही विचित्र स्थिति है. यह लोकतंत्र क़ी मान्यता के विपरीत है. हमें अपने लोकतंत्र को बहुमत क़ी आवाज़ का प्रतिनिधित्व करने वाला बनाना होगा, जिसमें बहुमत की आवाज़ सुनी जाय. यह हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी विसंगति है. होना तो यह चाहिए कि 49 प्रतिशत जो हार जाते हैं, उनकी भी राय शामिल की जानी चाहिए.
राजनीति में जाति और धर्म का हस्तक्षेप हमारे लोकतंत्र को प्रदूषित कर रहा है. लोग जातियों के आधार पर संगठित हो गये हैं. जाति और धर्म के वोट बैंक बन गये हैं. वोट बैंक देखकर राजनीतिक दलों के मुँह से लार टपकने लगती है. वोट बैंक को क़ब्ज़ाने क़ी होड़ लग जाती है. सवर्ण जातियों का एक वोट बैंक है. पिछड़ों का एक अलग वोट बैंक है. दलितों ने अपना एक अत्यंत सशक्त वोट बैंक बना लिया है.
कहा तो यहां तक जाता है की बच्चा जिस जाति में जिस दिन पैदा होता है, तभी यह तय हो जाता है कि वयस्क होने पर वह किस दल का मतदाता बनेगा. एक वोट बैंक मुसलमान अल्पसंख्यकों का है. ये अपना हित देखते हुए रणनीति बनाकर अलग अलग समय पर अलग अलग दलों को, एक साथ टैक्टिकल वोट करते हैं. फिर भाषा और क्षेत्र आधारित वोट बैंक हैं. इसमें परेशानी यह है कि इन वोट बैंकों के आधार पर चुने गये जॅन प्रतिनिधि देश के सभी समुदायों का हित न सोचकर अपने वोट बैंक का ही हित साधते हैं. दुर्भाग्य की बात है कि भाषा, क्षेत्र, जाति, और धर्म के आधार पर वोट प्राप्त करने वाले दूसरे के प्रति घृणा फैलाकर वोट प्राप्त करते हैं. यह सामाज को तोड़ने क़ी, विभाजित करने कि प्रक्रिया है. धर्म क़ी भूमिका भी नज़रअंदाज़ नहीं क़ी जा सकती. कुछ लोग’ हिंदुत्व ‘ के नाम पर वोट माँगते हैं. वैसे तो भारत क़ी सभ्यता और संस्कृति के नाम पर वोट माँगने पर ऐतराज़ नहीं किया जा सकता, लेकिन हिंदुत्व शब्द का प्रयोग अल्पसंख्यकों के मन में डर पैदा करता है. उनको अपने अस्तित्व / अलग पहचान के प्रति खतरा नज़र आता है. क्या भारतीयता का प्रयोग ज़्यादा उपयुक्त नहीं रहेगा. राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में अपने अपने हित प्रमुख हो जाते हैं और विकास, बिजली पानी, सड़क, स्वास्थ्य, ग़रीबी, बेरोज़गारी उन्मूलन के मुद्दे ओझल हो जाते हैं. केवल सत्ता प्राप्त करना ही मुख्य उद्देश्य हो जाता है. इस प्रकार क़ी राजनीति से देश का क्या कल्याण हो सकता है. शीर्ष पर भ्रष्टाचार चरम सीमा पर है. सहज ही बोफोर्स और क्वात्रोकी कांड, झारखंड मुक्ति मोर्चा घूस काण्ड, हर्षद मेहता कांड, बंगारू लक्ष्मण काण्ड, अब्दुल रहमान तेलगी काण्ड और अब मधु कोड़ा काण्ड, बरबस ही मष्तिस्क में कौंध जाते हैं. जनता के धन की ऐसी लूट कल्पना से भी परे है. आलम यह है कि इनमें संलिप्त लोगों में किसी को भी खरोंच तक नहीं आयी. राजनितिक भ्रष्टाचार का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है.
कानून व्यवस्था की हालत दिल दहलाने वाली है. जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू, शिवानी भटनागर और नीतिश कटारा हत्याकांड, मनु शर्मा का पैरोल, बी एम् डब्लू काण्ड याद करके रोंगटे खड़े हो जाते है. अगर मीडिया की भूमिका नहीं होती तो न्याय पाना मुश्किल था. नैना साहनी हत्या काण्ड में लाश को टुकड़ों में काटकर तंदूर में जलाया जाना, समाज के अधोपतन, अपराधीकरण का निकृष्टतम उदाहरण है. न्याय मिलने में कितने अवरोध हैं और न्याय में राजनितिक दखल के ये कुछ नमूने हैं. इसमें आम आदमी कहाँ ठहरता है, यह विचारणीय प्रश्न है. राजनीति का अपराधीकरण, राजनीति में अपराधियों का प्रवेश गंभीर चिंता का विषय है. हत्या बलात्कार जैसे घृणित से घृणित अपराधों में आरोपित अपराधी, जिनकी जगह जेल में होनी चाहिए, आज विधानसभाओं और लोक सभा में प्रवेश पा रहे है. इतना ही नहीं मंत्रिपद भी सुशोभित कर रहे हैं. हमारा लोकतंत्र पंगु और मूकदर्शक बना यह सब देख रहा है. हमको कहा जाता है कि इनको रोकने के लिये क़ानून बनाना संभव नहीं है. ये बाहुबल और धनबल से सत्ता प्राप्त करने में विश्वास करते हैं. ये अपराधी विधानसभा और लोकसभा सदस्य और मंत्री बनकर किसका हित साधन करेंगे, इसकी कल्पना सहज ही क़ी जा सकती है. बाहुबलियों का उपयोग लोगों को डरा धमका कर अपने पक्ष में वोट डलवाने और बूथ कैप्चरिन्ग में भी किया जाता है. सुनने में आता है कि इसके लिए ठेके भी दिए जाते हैं. अत्यंत दुर्भाग्य का विषय है क़ी जिस राजनीति को कभी महात्मा गाँधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद जैसे राष्ट्र निर्माता, युगदृष्टा संचालित करते थे आज वहाँ अपराधियों का प्रवेश हो गया है.
बाहुबल के साथ साथ राजनीति में धनबल का प्रभाव भी हमारे लोकतंत्र को विकृत कर रहा है. धन बल के सहारे वोट खरीदे जाते हैं. सुनने में आता है कि चुनाव के समय वोटरों को लुभाने के लिये शराब का भी भरपूर प्रयोग होता है. विधानसभा और लोकसभा लोकतंत्र के मंदिर कहलाते हैं. यह भी सुनने में आता है कि लोकतंत्र के इन मंदिरों में भी धनबल का प्रयोग सदस्यों क़ी खरीद फ़रोख़्त करके अपना बहुमत साबित करने के लिये धड़ल्ले से होता है. आज चुनाव इतने मंहगे हो गये हैं कि केवल करोड़पति ही विधानसभाओं और लोकसभा में पहुँच पा रहे हैं. वर्तमान लोकसभा में करोड़पतियों की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ है. लोकसभा और विधानसभाओं में प्रवेश कर पाना आम आदमी के पहुँच के बाहर की बात हो गई है. इस प्रकार आम आदमी का प्रतिनिधित्व नहीं हो पा रहा है. उसकी आवाज़ बाहुबल और धनबल के प्रभाव में कहीं खो जा रही है. भाषा और क्षेत्रीयता के प्रश्न का अपना योगदान है. राजनीतिज्ञ अपनी नेतागिरी चमकाने के लिए अपनी भाषा और क्षेत्र को देश से ऊपर रख रहे है. एक तरफ देश और दूसरी ओर भाषा और क्षेत्रीयता में संघर्ष की स्थिति पैदा करने के प्रयत्न किये जा रहे है. हमारी प्राथमिकताओं को पूरी तरह से भुला दिया गया है. आम आदमी नारकीय जीवन जीने को विवश है.
चुनी हुई सरकार और कानून व्यवस्था की विश्वसनीयता समाप्त हो रही है. हमारा लोकतंत्र गंभीर बीमारियों से ग्रस्त है. वह पूरी तरह छत विछत और विकृत हो चुका है. वह मरणासन्न अवस्था में है. इसका उपचार होना अति आवश्यक है. हमारा लोकतंत्र अपने उद्देश्य से भटक चुका है. उसका स्वरूप इतना विकृत चुका है, कि वह पहचान में ही नहीं आता है. मेरा प्रबुद्ध जनों से अनुरोध है कि इसका समाधान ढूँढे और समय रहते उचित कार्ररवाई करें.
हमारी लोकतंत्र की गाडी पटरी से उतर चुकी है. इसको पटरी पर लाने के लिए हमें अपनी प्राथमिकताओं का धान रखना पड़ेगा. जाति, धर्म , भाषा, क्षेत्रीयता से ऊपर उठकर हमें अपनी प्राथमिकताओं को सुनिश्चित करना होगा. हमारी प्राथमिकताएं होनी चाहिए भुखमरी,बीमारी, गरीबी, बेरोजगारी, गैरबराबरी उन्मूलन, शिक्षा और स्वास्थ्य की समुचित व्यवस्था, आधारभूत ढाँचे में बिजली, पानी, उर्जा की आवश्यकताओं की आपूर्ति , भ्रष्टाचार को समाप्त करना इत्यादि. अगर प्राथमिकताओं पर ध्यान केन्द्रित किया जाय, तो जाति धर्म, क्षेत्रीयता, भाषा के मुद्दे गौड़ हो जायेंगे. हर व्यक्ति के अन्दर शासन व्यवस्था के प्रति विश्वास कायम करना होगा. विश्वसनीयता का संकट बहुत गंभीर है. इसको अनदेखा नहीं किया जा सकता.

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